Wednesday, June 23, 2010

फ़साना

क्या बतायें फ़साना, हम अपना तुम्हें
कर हीं देतीं हैं बयां ये आँखें, लम्हे दर लम्हे
पर शायद तुम करते हो बस चेहरों से मुलाकात
तभी पढ़ नही पाते हो इन कहती आँखों की बात.

पर गम ना करो, कहने को है भी नही कुछ ख़ास
उड़ जाती है खुशबु, रह जातें हैं तो बस मेरे काश
और जिंदगी बन कर रह गयी है इक जले का दाग
मिटाने को जिसे छेड़ा हो जैसे, किसी ने बारिशों का राग

और उन कातिल बारिशों से टकराती जूझती
सहमती, सिसकती, तो कभी जरा भड़कती
छोटी ही सही, पर अब भी दहक रही है आग
के बुझ ना पातें हैं मेरे, ये आशा-ए-चराग...   

4 comments:

  1. Fasana is Urdu and not Hindi. :)

    ReplyDelete
  2. correct. And I was wondering whether to apply label as Hindi-cum-urdu poem. But decided to stick with Hindi as its not completely Urdu either.

    ReplyDelete
  3. छोटी ही सही, पर अब भी दहक रही है आग
    के बुझ ना पातें हैं मेरे, ये आशा-ए-चराग...

    bahut badiya sir!!

    ReplyDelete

If not here then where...? If not now then when...?