Friday, September 03, 2010

दुविधा


दरवाजे पर खड़ी चिंतन में,
सहमी, सकुचाती इक बाला;
विस्तृत होता अन्धकार है,
बहती दुविधा की अविरल धारा |
अन्दर शायद सखी छुपी है,
खेल हो रहा लुका छिपी का;
ढूँढना उसकी लाचारी है,
वरना यह खेल अधूरा है |
"पर क्या अन्दर दीपक जलता है;
या यह रात अमावास है?
भीतर जाकर देख पाने का
साहस क्या उसके पास है?"
अगर वो अन्दर जाती है,
और छुपी सखी उसे मिल पाती है;
तो वे लौट के घर जायेंगी, 
और अँधेरे के दूतों को, हा हा करके चिढायेंगी |
पर अगर अँधेरे ने दबोच लिया, 
और आशाओं का आँचल नोच लिया, 
तब क्या ये साहस रह पायेगा?
या उसके आसुंओं में, तिनका तक भी बह जायेगा?
इतने तक तो तब भी ठीक है,
क्यूंकि सखी का साथ अभी बाकी है;
पर आँकों तुम मूल्य इस खेल का,
गर जो सखी ने साहस छोड़ दिया... | 

6 comments:

If not here then where...? If not now then when...?