Wednesday, September 21, 2011

इक पेड़ का मंथन

हा! काटो, एक और सही, की हैं शाखाएँ अभी और भीं
सह लेना बस थोड़ा, की है खुद ही खुद को सताने का दौर भी |
जलाएगा सूरज तुम्हे कुछ और, तो क्या?
जलाती तो है तुम्हे इर्ष्या और बदले की आग भी |
माना होगी हवा कुछ कम, तड़प लेना जरा
आखिर तड़पते हो फंसे, अपनी तन्हाईयों औ चाहतों के जाल में भीं |
ना पंछियों की कोलाहल, ना कोयल रूपी जीवन की कूक होगी,
पर शायद बहरे हो! अपनी छोड़ सुनते ही हो कौनसी आवाज़ दूसरी अब भी?
दौड़ो...! पर थकोगे, आज या कल -- कभी तो तुम -- या शायद नहीं 
की मशीनी सी हो गयी है ये आगे बढ़ने की तुम्हारी दौड़ भी |
हमारा क्या है, सिमट जायेंगे इस जहाँ से हम, पर तुम्हे क्या? 
शायद हमारे जाने के बाद, हैं जीने के तुम्हारे सहारे कई और भीं |