Thursday, November 17, 2011

अलफ़ाज़

क्यूँकर ये मेरे लफ़्ज़ों का दरिया 
है चला जाता बहता, अकेला युंही?
ना दीखता इनको कोई अजनबी मोड़ कहीं है
ना अकड़ता पत्थर ही मिलता है कोई 
और ना ही वो ऊँचे से अचानक गिरना 
ना जाकर किसी घनघोर सागर से मिलना;
फिर क्यूँकर चला जाता है बहता 
ये लफ़्ज़ों का दरिया, अकेला युंही?

सुनी थी कभी पंछियों की कोलाहल किनारे
अब तो हैं बस फैले ये सुनसान वीराने
और छोड़ दिया है युंही, इन लफ़्ज़ों को अकेला
बहते जाने के लिये — हैं बहते ये जबतक |