Thursday, November 03, 2022

दुविधा - २

जाने ऐसी क्या हो गयी है बात,
जो बाहर ना कुछ आहट होती है;
दिन से लगता है शायद अब हो गयी रात,
छिपी कमरे में, वह सोचती है, रोती है।

जब वह इस कमरे में आयी थी,
तब अंधेरे से उसकी ना ये लड़ाई थी; 
और आसान लगा था यूँही छिप जाना,
ध्येय था तो बस सखी को देख चिल्लाना।

पर, फिर समय की गुलेल कुछ लम्बी खिंची,
उसके अधपके दर की क्यारियाँ, उसकी दुविधाओं ने सिंची;
"क्या छिपी रहूँ यूँही, चुपचाप, इस बिस्तर के नीचे,
या कर साहस भाग चलूँ बाहर, अपनी प्रिय सखी के पीछे?"

अब तो सन्नाटा भी गहराता चला है,
संग साहस और संकल्प भी ठहराता चला है;
याद आता है तो बस सुनी उन कहानियों का डर,
जहां बिस्तर के नीचे होता था काले भूतों का घर।

शायद वो भी लुका छिपी खेल रहे हैं मुझसे,
धप्पा बोलने को, यहीं कहीं ताक में खड़े हैं कबसे;
अब तो सखी की पुकार ही लगती, मेरा एकमात्र सहारा है,
पानी तो ठहरा, भले ही अंततः निकल जाए खारा है।

बरसों से खेल यह सब खेल रहे हैं, 
और यह खेल अनवरत जारी है;
मुखौटे ही बस बदल रहें हैं,
आज हमारी, तो कल निकल जाये किसी और की बारी है।।