Wednesday, April 17, 2024

यू डोंट नो व्हाट आई एम गोइंग थ्रू ...

बहुत बार सुना है तेरे मुख से,
"यू डोंट नो व्हाट आई एम गोइंग थ्रू"| 
चल आज बता ही दे तू ,
"व्हाट इट इज डैट यू आर गोइंग थ्रू"||  

पर ना झिझकना बेवजह,
और ना पूछना मुझसे,
कर्टसी तुम्हारी सर आँखों पे, 
"व्हाट इट इज डैट यू आर गोइंग थ्रू"||  

जब सूरज और चाँद तो क्या,
एक अदना सा तीन वाट का बल्ब भी 
वेन डायग्राम बनकर तुम्हे जब चिढ़ाने लगे,
तब पूछना मुझसे व्हाट इट इज डैट आई एम गोइंग थ्रू|| 

जब तुम्हारे खुद के लिखे अक्षर 
भैंस ना भला, वान गॉग ही सही 
की पेंटिंग जैसा तुम्हे जब घूमाने लगे,
तब पूछना मुझसे व्हाट इट इज डैट आई एम गोइंग थ्रू||

जब राह चलते लोग तुम्हे,
कीड़े मकोड़ों सा बनकर चिढ़ाने लगें,
एंड नॉट बिकॉज़ यू आर अ हेट फिल्ल्ड बलून,
तब पूछना मुझसे व्हाट इट इज डैट आई एम गोइंग थ्रू||

जब वीक डेज़ तो छोडो,
बच्चों के साथ वीकेंड की 
नेटफ्लिक्स भी तुम्हे जब सताने लगे    
तब पूछना मुझसे व्हाट इट इज डैट आई एम गोइंग थ्रू||

डोंट यू वरी, आइ डेफ़िनिट्ली अंडरस्टैंड ब्रो,
व्हाट इग्ज़ैक्ट्ली इट इज डैट यू आर गोइंग थ्रू।।

Thursday, November 03, 2022

दुविधा - २

जाने ऐसी क्या हो गयी है बात,
जो बाहर ना कुछ आहट होती है;
दिन से लगता है शायद अब हो गयी रात,
छिपी कमरे में, वह सोचती है, रोती है।

जब वह इस कमरे में आयी थी,
तब अंधेरे से उसकी ना ये लड़ाई थी; 
और आसान लगा था यूँही छिप जाना,
ध्येय था तो बस सखी को देख चिल्लाना।

पर, फिर समय की गुलेल कुछ लम्बी खिंची,
उसके अधपके दर की क्यारियाँ, उसकी दुविधाओं ने सिंची;
"क्या छिपी रहूँ यूँही, चुपचाप, इस बिस्तर के नीचे,
या कर साहस भाग चलूँ बाहर, अपनी प्रिय सखी के पीछे?"

अब तो सन्नाटा भी गहराता चला है,
संग साहस और संकल्प भी ठहराता चला है;
याद आता है तो बस सुनी उन कहानियों का डर,
जहां बिस्तर के नीचे होता था काले भूतों का घर।

शायद वो भी लुका छिपी खेल रहे हैं मुझसे,
धप्पा बोलने को, यहीं कहीं ताक में खड़े हैं कबसे;
अब तो सखी की पुकार ही लगती, मेरा एकमात्र सहारा है,
पानी तो ठहरा, भले ही अंततः निकल जाए खारा है।

बरसों से खेल यह सब खेल रहे हैं, 
और यह खेल अनवरत जारी है;
मुखौटे ही बस बदल रहें हैं,
आज हमारी, तो कल निकल जाये किसी और की बारी है।।

Thursday, November 17, 2011

अलफ़ाज़

क्यूँकर ये मेरे लफ़्ज़ों का दरिया 
है चला जाता बहता, अकेला युंही?
ना दीखता इनको कोई अजनबी मोड़ कहीं है
ना अकड़ता पत्थर ही मिलता है कोई 
और ना ही वो ऊँचे से अचानक गिरना 
ना जाकर किसी घनघोर सागर से मिलना;
फिर क्यूँकर चला जाता है बहता 
ये लफ़्ज़ों का दरिया, अकेला युंही?

सुनी थी कभी पंछियों की कोलाहल किनारे
अब तो हैं बस फैले ये सुनसान वीराने
और छोड़ दिया है युंही, इन लफ़्ज़ों को अकेला
बहते जाने के लिये — हैं बहते ये जबतक | 

Wednesday, September 21, 2011

इक पेड़ का मंथन

हा! काटो, एक और सही, की हैं शाखाएँ अभी और भीं
सह लेना बस थोड़ा, की है खुद ही खुद को सताने का दौर भी |
जलाएगा सूरज तुम्हे कुछ और, तो क्या?
जलाती तो है तुम्हे इर्ष्या और बदले की आग भी |
माना होगी हवा कुछ कम, तड़प लेना जरा
आखिर तड़पते हो फंसे, अपनी तन्हाईयों औ चाहतों के जाल में भीं |
ना पंछियों की कोलाहल, ना कोयल रूपी जीवन की कूक होगी,
पर शायद बहरे हो! अपनी छोड़ सुनते ही हो कौनसी आवाज़ दूसरी अब भी?
दौड़ो...! पर थकोगे, आज या कल -- कभी तो तुम -- या शायद नहीं 
की मशीनी सी हो गयी है ये आगे बढ़ने की तुम्हारी दौड़ भी |
हमारा क्या है, सिमट जायेंगे इस जहाँ से हम, पर तुम्हे क्या? 
शायद हमारे जाने के बाद, हैं जीने के तुम्हारे सहारे कई और भीं |

Tuesday, October 12, 2010

Days, Seeking Nighthood...!!

Night, a friend;
So many stars to befriend.
Grow deeper, these bonds;
With its bright light when, 
The moon too absconds.

Day, but a pretender;
True feelings are real slender.
Harsher feels, this truth;
Gone are the days when,
Of your seemingly short youth.